जीवन का अस्तित्व
जीवन का उद्देश्य बस रोटी कपडा या मकान नही है। बल्कि अपने जन्म के उद्देश्यों को जानना मतलब अपने अस्तित्व को प्रस्तापित करना है.
इन्सान के जीवन का उद्देश्य और अस्तित्व कही न कही इन्सान के कर्म का रूप होता है। और इन बातो के अधिक स्पष्टीकरण के लिए मानव जीवन कि सोच – विचारशैली पर एक नजर डालना आवश्यक है।
जीव के जन्म और मृत्यु के बीच का अंतर ही जीवन को संबोधित करता है। लेकिन जीव का जन्म क्यों होता है? या कोई उनके इच्छापूर्ति हेतु होता है ? क्या उद्देश्य हेतु हुआ है? इन सारे सवालों के जवाब जीवात्मा के कर्मो पर आधारित है जो इस प्रकृति के नियमो के अंतर्गत है। और जो इन सारे सवालों के जवाबों को समझा वो इस सृष्टि मे जीवन के अस्तित्व को समझ पाया।
जीवन का सबसे एहं भाग है तो वो है “चेतना” जो जीवन के सभी क्रियाओं का साक्षी होता है। आप और हम कि भावना से उपर उठकर ” मै” का विस्तार होना ही चेतना का विस्तार है और जो चेतना का विस्तार कर लिया वो सही दिशा में जीवन के लक्ष्य,उद्देश्य या अस्तित्व को जान लिया।
चेतना वो अनुभूति है जो मस्तिष्क मे पहुुुचनेवाले अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है जो विज्ञान का कहना है।
मुलतः शास्त्रों और वेदों अनुसार चेतना वो शक्ति है जो संपूर्ण ब्रह्मांड मे व्याप्त परम शक्ति है। सृष्टि मे बनी हर वस्तु चाहे पंचमहाभूत, आकाश, जीव,जंतु, पानी, पृथ्वी, मनुष्य, प्राणी,अंतरिक्ष मे घुमनेवाले ग्रह हर वो बात जो कुदरत से जुडी हुई है वही परमशक्ति , ज्ञानशक्ति चेतना है। इसी चेतना के कारण पृथ्वी के उपर और पानी के निचे सभी मनुष्य, प्राणी, जलचर, जिव,जंतु आदि सब जीवित है और यही जिंदगी को सचेतन भाव मे जीना ही चेतना है।
” बिना चेतना के अस्तित्व संभव नही है, जिसकी कोई कल्पना ही नही है”…
चेेतना मनुष्य कि वो विशेेशता है जो मनुष्य को जीवीत रखती है और उसे अपने बारेंं मे घटित होनेेवाली बाते या भौतिक वातावरण कि बातो का ज्ञान कराती है उसी ज्ञान को विचारशक्ति या बुध्दि कहते है।
अगर आप बेेहोश है तो आप नही जानतेे के आप जिवीत है , जिवन को महसूस करना ही चेेेतना है। मनुष्य केेेवल चेेेतना से उत्पन्न हुुुए प्रेरणा के कारण ही कोई भी काम कर सकत है।
हम इस शरीर के साथ अपनी सिमाएंं तय कर चुके है जैसे ” मै और आप ” में। जबके चेतना एक ही है वो कोई अलग अलग तरह से शरीरों मे विद्यमान नही है , ये तो हमारी बनाइ हुईं सिमाएं है जो हम इस शरीर से अपनी पहचान स्थापित कर रहे है। अगर शरीर कि जगह अपनी पहचान चेतना के विस्तार से प्रस्थापित करेंगे तो ए “मै” और “हम” का फर्क कम होकर ” आपमे हम और हममें आप एक ही नजर आएगें. इसीका सोच का विस्तार होना मतलब चेतना का विकास होना।
ये वही चेेेतना है जो मनुष्य के हर कार्य कि साक्षी होती है जो पृथ्वी पे सभी प्राणी, पशु पक्षीयों मे मनुष्य को श्रेष्ठता प्रदान करती है , प्रकृति से मिले हुये मानव मस्तिष्क कि शक्ति (बुध्दि) वही शक्ति जो चेतना है जिस आधार पर उसकी कल्पनाशीलता दूरदर्शिता, विचारशीलता, आकलन संवेदना आदि। और यही चेतना जो मनुष्य के उद्देश्यो को निरधारित कर अस्तित्व को प्रस्थापित करती है.।।